Monday, February 24, 2014

मेरे महबूब न रुकना कि तुझे मेरी क़सम....

मेरे महबूब न रुकना कि बस एक और क़दम...... 

बस एक और क़दम ....और सफ़र की हद  है... 


अपने खुद्दार इरादों से चुने थे रस्ते, 

ऐसी मंज़िल को हराने का मज़ा बेहद् है... 


मैंने देखा है तेरी सुर्ख हथेली का लहू

मैंने देखी है तेरी कागज़ी आँखों की थकन... 


मुझको है इल्म तेरी सांस की गहराई का.. 

मैंने देखा है खरोंचों से सजा तेरा बदन 


मगर वैसे  भी कब थी तुझको पसंद,

ऐसी बे आबरू  मंज़िल की जो पैरों में लिपट  जाती है. 


तुझको जो खींच ले शोख़ी से सिम्त अपने और, 

पीछे हट जाए वो क़ुर्बत ही समझ आती है..


तोड़ दे आज तू क़िस्मत का ग़ुरूर ... 

आँख मेेँ आँख डाल मंज़िल की...  


उनकी शोख़ी , अना या तेरा जुनूँ ?

बिसात क्या है किस मुक़ाबिल  की?


छीन ले ख़्वाब अपने हक़ के सभी..

रंग दे सुर्ख ये आब ये हवा ये शहर ... 


रात अब ख़त्म होने वाली है,

आग बन जल चुका चराग ए सहर!

तू ना रुकना कि तुझे मेरी क़सम , 

बस एक और क़दम, और सफर की हद है.. 


-निधि