Saturday, May 2, 2020

चाँद को रोज़ शब्

चाँद को रोज़ शब् पारा पारा..
अपनी शम्मा में जल के मोम सा घटता देखा..

परीशान तुझको अपने साये से,
दो कदम पास आ के दस कदम हटता देखा ..

यूँ ही बिखरे थे हरसु लाख बरस...
आज उन सब को बस एक ख़त में सिमटता देखा...

वक़्त की राख के कुछ अनजले अरमानों को...
काली रातों में जुगनू सा थिरकता देखा ...

ख़ूब रोया था वो, दरिया था मगर,
बहते रहना था उसे बारहा बँटता देखा ...

इक चराग़ मैंने जलाया जो इक अमावस रात,
अक्स को अपने आईने से कटता देखा ...

एक अरसा बीत गया जब से मैंने फागुन में
बिजलियाँ गिरती देखीं आसमान फटता देखा ...

जब बहा ले गया आशियाने के टुकड़े सैलाब,
आँख मिलते उसकी कश्ती को पलटता देखा ...

बड़ा सुकून था उस गरीब से मोहल्ले में..
एक बच्चे को जहां आयतें रटता देखा...

जब हुए दर्द से तर सोगवार रातों में ,
नीले तहमत का कोना नन्ही ऊँगली में लिपटता देखा..