Saturday, September 5, 2015

ईशा के लिए...

बरामदे की धूप जैसी सुहानी...

इक सांवली सी लड़की 
मुझे बहुत सताती थी..

गाहे बगाहे आ जाती थी उड़ती फिरती 

मेरे नीम की डाल पे बैठी चिड़िया जैसी..
राग निराले गाती थी..

दुनिया भर के किस्से सुनाती थकती नहीं थी..
हाँ बेशक सुनती सुनती मैं थक जाती थी..

मैं कहती थी, "चुप भी हो जा, पानी पी ले..'
बातें करते- हँसते अक्सर उसकी सांसें चढ़ जाती थीं...

झोले में उसके होते थे सपने इतने..
खन्न खन्न करते थे सोने के सिक्कों जैसे..

मैं डरती थी कोई कहीं चुरा न जाए..
करती थी ताकीद तो उड़ के भग्ग जाती थी...

डर मेरा सच होगा मैंने सोचा न था..
सन्नाटे ने छीन लिए सब सपने उसके..

सारे गाने, सारी उड़ानें कैद कर गया..
राह देखते रह गए सारे अपने उसके..

मुझे कोई बतला दे कोई गाँव जहां पर..
सन्नाटा रखता है अपने बंदी सारे...

मैंने सुना है बहुत बड़ा है उसका पिंजरा..
सन्नाटे के गाँव से बच कर कोई चिड़िया आई नहीं है..

-निधि